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बरसात थी अश्कों की हम हँसकर मगर सबसे मिले / अमर पंकज

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बरसात थी अश्कों की हम हँसकर मगर सबसे मिले,
सूखे हुए भी फूल जैसै फिर चमन में हों खिले।

मर-मर के यूँ जीता नहीं आसान होती मौत गर,
ऐ ज़िंदगी मैं चुप ही हूँ हैं मेरे लब अब भी सिले।

हमने सुना था ये कि रब जो चाहता होता वही,
तो रह गया ख़ामोश क्यों जब चाँद तारे भी हिले।

तेरी खुदाई में ख़ुदा मिलता अगर इंसाफ़़ तो,
मायूस जग होता नहीं होते नहीं सबको गिले।

सहना पड़ेगा कह्र हर अब आह मत भर तू ‘अमर’,
दुश्मन दिलों में बस गया था इसलिये तो दिल छिले।