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बरहना लाश सा बना है हर बसर जमाने में / कबीर शुक्ला

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बरहना लाश-सा बना है हर बसर जमाने में।
चली है बेहयाई बेहोशी की सरसर जमाने में।
 
नुमाइशे-जिस्म नुमाइशे-शोहरत में इजाफ़ा है,
तमद्दुन कदीम भटकती है दरबदर जमाने में।
 
जैसे तूफान में बह जाते हैं घर-मकाँ सदहा,
हू-ब-हू गर्द में मिल रही है सहर जमाने में।
 
नजरों की हवस-परस्तगी उरियानियाँ देखो,
देखती खतो-खाल मक्तल कमर जमाने में।
 
खूने-तमन्ना खूने-इंसाँ खूने-वफ़ा खूने-जिगर,
लहू-ए-कल्ब से लहूलुहान है डगर जमाने में।
 
हर चेहरे पर कई रंगों की रिदाएँ हैं मयस्सर,
कौन काबिले-एतबार जायें किधर जमाने में।
 
जज्बात की तिज़ारत हर-शू होती है 'कबीर' ,
ताजिरों की बस्ती बना घर शहर जमाने में।