भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बस, इसी एक ज़ुर्म पर / निदा फ़ाज़ली

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमको कब जुड़ने दिया
जब भी जुड़े बाँटा गया
रास्ते से मिलने वाला
हर रास्ता काटा गया

कौन बतलाए
सभी अल्लाह के धन्धों में हैं
किस तरफ़ दालें हुईं रुख़सत
किधर आटा गया
लड़ रहे हैं उसके घर की
चहारदीवारी पर सब

बोलिए, रैदास जी !
जूता कहाँ गाँठा गया
मछलियाँ नादान हैं
मुमकिन हैं खा जाएँ फ़रेब
फिर मछेरे का
भरे तालाब में काँटा गया
वह लुटेरा था मगर
उसका मुसलमाँ नाम था
बस, इसी एक जुर्म पर
सदियों उसे डाँटा गया