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बस, इसी एक ज़ुर्म पर / निदा फ़ाज़ली
Kavita Kosh से
हमको कब जुड़ने दिया
जब भी जुड़े बाँटा गया
रास्ते से मिलने वाला
हर रास्ता काटा गया
कौन बतलाए
सभी अल्लाह के धन्धों में हैं
किस तरफ़ दालें हुईं रुख़सत
किधर आटा गया
लड़ रहे हैं उसके घर की
चहारदीवारी पर सब
बोलिए, रैदास जी !
जूता कहाँ गाँठा गया
मछलियाँ नादान हैं
मुमकिन हैं खा जाएँ फ़रेब
फिर मछेरे का
भरे तालाब में काँटा गया
वह लुटेरा था मगर
उसका मुसलमाँ नाम था
बस, इसी एक जुर्म पर
सदियों उसे डाँटा गया