पृथ्वी हिलेगी नहीं इस बार 
धधकेगी भी नहीं
डूब जाएगी अपने ही पानी में अकस्मात। 
अपने विस्तार के साथ
अपने ही पानी में डूबी पृथ्वी
केवल प्रायश्चित करेगी शताब्दियों तक।
यह सब देखता रहेगा निरभ्र आकाश
नक्षत्र-लीला में ग्रह-विलय की तरह चुपचाप।
सूर्य के संस्पर्श की प्रतीक्षा करेगी 
जल में समाधिस्थ वसुंधरा 
निर्विकार-निश्छल-निर्लिप्त
मनुष्य के विषय में 
कुछ भी न सोचती हुई
डूबी रहेगी अपने ही पानी में बहुत दिनों तक
रचनाकाल : 1991, नई दिल्ली