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बहुत मैंने पुकारा, ओ पिया! / रामगोपाल 'रुद्र'

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बहुत मैंने पुकारा, ओ पिया! अब तू पुकार
पिया! अब तो पुकार!

चकोरी-सी न मेरी याद लोचन क्यों लसे!
न स्वर के शर, न पिक-उन्माद मधुबन क्यों बसे!
पपीहे की नहीं फरियाद स्वाती क्यों रसे!
हुआ ही क्या अभी बरबाद जिस पर तू हँसे!

मगर यह रात यम की अन्‍धकारा ओ पिया!
घुटा दम जा रहा; इस अन्‍धकारा से उबार! !

कि पत्थर तक पसीजा हो गए मरु भी हरे;
धरा का गात भींजा छाँव के बन-बन भरे;
खिला जो चाँद, मिलके खिल उठे नयन;
निमोही! तू न रीझा रात-भर लोचन ढरे!

प्रलय की धार भ्रम ही भ्रम किनारा ओ पिया!
किनारा दे तरी को, या, किनारे पर उतार! !

सुबह तो रोज़ आती है, मगर इस कूल पर
नहीं आती किरन, हम्सती भ्रमर की भूल पर!
मुझे मेरा पता देकर, निठुर! यह क्या किया!
भरम तो था कि मैं मँडरा रहा हूँ फूल पर!
छुटा, अब तो, भरम का भी सहारा, ओ पिया!
मुझे मत देख, पर अपनी नज़र को तो सुधार!
पिया! अब तो पुकार!
पिया! अब तू पुकार!