भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहुत हमने खोया, बहुत हमने पाया / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


बहुत हमने खोया, बहुत हमने पाया
जो सच पूछिए फिर भी जीना न आया

बिखरती गयी रंग की फुलझड़ी-सी
ये किसने बहारों का घूँघट उठाया!

जहाँ से हुई थीं अलग अपनी राहें
वहीं से हुई एक दोनों की छाया

किसीकी तड़प, बेबसी, कुछ न पूछो
भुला भी चुका है, भुला भी न पाया

गुलाब! एक दुनिया में घायल नहीं तुम
नहीं किसको काँटों ने हँसना सिखाया!