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बागों में कोयलिया कूके जीवन महक उठा / मृदुला झा

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विरहन का बेजान जिस्म अब देखो चहक उठा।

प्रिय के आवन की बातें सुन मनमां मुस्काये,
घर-आँगन मन भावन लागे जियरा कुहक उठा।

मतवाली पुरवा भी देखो कैसे डोल रही,
नभ में चमकी नेह की बिजुरी हियरा बहक उठा।

आये नहीं परदेशी प्रियतम सावन बीत गया,
मुरझाई आशा की कलियाँ सपना लहक उठा।

निर्माेही प्रियतम की पाती मन को बेध रही,
विरहानल ऐसा भड़का, ये तन-मन दहक उठा।