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बात तो थी मगर न थे अल्फ़ाज़ / कांतिमोहन 'सोज़'

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थोड़ी देर पहले मैंने इस ग़ज़ल के अशआर 'फुटकर' शीर्षक से रक़म किए थे। ये अशआर मुझे अपनी एक पुरानी डायरी में मिल गए थे और पसन्द आने के सबब मैंने इन्हें अपने दोस्तों के साथ शेयर करना मुनासिब समझा। आज के हिसाब से मैं इन्हें ग़ज़ल के खाते में भी डाल सकता था, लेकिन मैं पुरानी वज़अ-क़तअ का आदमी हूँ और मतले के बिना किसी ग़ज़ल को ग़ज़ल मानने में मुझे दिक़्क़त पेश आती है। दोस्तों ने शायद ग़ौर किया हो कि मेरी हर ग़ज़ल में एक मतला, चार या छह शेर रहते हैं। मक़ते में अक्सर तख़ल्लुस रहता है, लेकिन मैं तखल्लुस की खातिर भरती का शेर डालने के बजाय उसे छोड़ देना बेहतर समझता हूँ। ग़ज़ल के लिए मैं तख़ल्लुस को लाज़िमी नहीं मानता। इत्तफ़ाक़ की बात है कि इन अशआर को फुटकर खाते में डालने के कुछ ही देर बाद मतला नाज़िल हो गया और मेरी नज़र मैं ग़ज़ल मुकम्मल हो गई। लीजिए, यह ग़ज़ल आपकी ख़िदमत में हाज़िर है। मुझे ख़ुशी है कि इस बहाने आपसे रचना-प्रक्रिया पर कुछ बात भी हो गई।

बात तो थी मगर न थे अल्फ़ाज़ ।
कैसे कुछ कहता मैं ग़रीबनवाज़ ।।

घर में जो था सुपुर्दे-ख़ाक हुआ,
दिल में लेकिन है हसरते-परवाज़ ।

वक़्त कटता नज़र नहीं आता,
और मैं हो चुका हूँ उम्रदराज़ ।

था हमें गुमरही का शौक़ बहुत,
उसकी नज़रें भी थीं ग़लत-अन्दाज़ ।

इसका अंजाम तो खुदा जाने,
हाथ में था सो कर चले आग़ाज़ ।

ज़िक्र भी तुझसे क्या करें नासेह
हमने देखा है इश्क़ का एजाज़ ।

हम कि पोशीदा कुछ भी रख न सके
राज़वाला भी हो रहा नाराज़ ।

सोज़ का साज़ तो सलामत है
उससे आती नहीं कोई आवाज़ ।।

12.12.2014