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बात बिगड़ी, ऐसी बिगड़ी कि बनाते न बनी / अशोक अंजुम

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बात बिगड़ी, ऐसी बिगड़ी कि बनाते न बनी
जिन्दगी रूठी यूँ रूठी कि मनाते न बनी

लोग सारे ही लतीफों के तलबगार मिले
गीत गाते न बनी शेर सुनाते न बनी

एक चिनगारी उठी उठ के बन गई शोला
आग फिर ऐसी लगी हमसे बुझाते न बनी

संगदिल वक़्त ने की दिल्लगी यूँ शामो-सहर
दूर जाते न बनी सिर को बचाते न बनी

हमने कुछ इस तरह से कर लिए क़रार कभी
बोझ काँधों पर लदे और उठाते न बनी