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बादल / देवेन्द्र आर्य
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बस यही दो चार लोटा जल ,
और क्या देगा हमें बादल ?
पड़ गए हैं पट्टीदारी में,
आदमी, पर्वत, नदी, जंगल ।
चुप्पियाँ ही दे सकें शायद,
मौन के बड़बोलेपन का हल ।
देह पानी की तरह थिर है ,
मन है पानी की तरह चंचल ।
शहर में सब खैरियत तो है ?
आप ! गोरखपूर में, पैदल ?
मुझसे होने से रहीं ग़ज़लें,
कौन पारे बैठ के काजल ।
है ग़ज़ल मेरे लिए खुरपी ,
जल रहे खलिहान में दमकल ।