बाद बरस के चली फगुनहट, होली का त्यौहार
प्रकृति खेलती फगुआ फगुआ, धरा करे मनुहार॥
सुख दुख दोनों ही होते हैं, सिक्के के दो रूप
इनके लिये कहीं भी साथी, चलता नहीं उधार॥
मीठा मीठा खाकर मानव, जाता बिल्कुल ऊब
इसीलिये चाहिए जीभ को, कुछ तीखा चटकार॥
गहन तिमिर के बाद उजाला, आता ले नव रूप
अन्धकार के बिना चाँदनी, लगती है बेकार॥
सहमा सहमा दीप न देता, है प्रकाश भरपूर
खुल कर जल पाये तो कर दे, किरणों की भरमार॥
यादें रह कर हृदय निलय में, करती हैं बेचैन
मन पंछी उड़ता ही जाता, उस पर कब अधिकार॥
एक बार बस सांवरिया ने, थामा मेरा हाथ
साथ नहीं वह फिर भी अब तक, उतरा नहीं खुमार॥