बारहमासा / लक्ष्मीकान्त मुकुल
सावन भादो के रिमझिम फुहारों के बीच
कुदाल लेकर जाऊँगा खेत पर
तुम आओगी कलेवा के साथ
चमकती बिजली , गरजते बादलों के बीच
तुम गाओगी रोपनी के अविरल गीत
बिचड़े डालते मोर सरीखे थिरकेगा मन
खडरिच-सा फुदकेंगे कुआर-कार्तिक में
कास के उजले फूलों के बिच
सोता की धार-सी रिसती रहेगी तुम
गम्हार वृक्ष-सा जडें सींचता रहूँगा कगार पर
धान काटते , खलिहान में ओसाते
अगहन-पूस के दिनों में बहेगी ठंढी बयार
तुम सुलगाओगी अंगीठी भर आग
चाहत की तपन से खिल उठेगा मेरी देह का रोंवा
माघ-फागुन के झड़ते पत्तों के बिच
तुम दिखोगी तीसी के फूल जैसी
छाएगी आम के बौराए मंज़र की महक
तुमसे मिलने को छान मारूंगा
चना-मटर-अरहर से भरी बधार
चैत्र-बैसाख में चलेगी पूर्वी-पश्चिमी हवाएं
गेहूं काटने जायेंगे हम सीवान में
लहराओगी रंग-बिरंगी साड़ी का आँचल
बोझा उठाये उडता रहूँगा
सपनों की मादक उड़ान में
तेज़ चलती लू में बाज़ार से लौटते हुए
जेठ-आसाढ़ के समय
सुस्तायेंगे पीपल की घनी छाँव में
पुरखे तपन में ठंढक देते हैं वृक्षों का रूप धर
हम बांटेंगे यादें अपने बचपन की
तुम कहोगी हिरनी-बिरनी के साहसिक किस्से
खडखडाउंगा कष्टप्रद दिनों से जूझने की
शिरीषं फलियों की अपनी खंजड़ी