बिलख रही है जमुना कि नीली जलधाराएँ / लक्ष्मीकान्त मुकुल
झार-झार रोती है जमुना कि जलधाराएँ
भौतिक विकास के कालिया नाग की असंख्य दंशों से ग्रसित
कब से सूख चुका है उद्गम से आता
स्वच्छ निर्मल जल का शीतल प्रवाह
नए युग के कौरवों ने विसर्जित कर डाले हैं उसके बहाव में मल-मूत्र की गंदगियाँ
मछलियाँ तरस रही हैं
कछुए, घोंघे विफर रहे हैं उसकी तलहटियों में
कगार पर खड़ा कदंब की गांछ
पत्रहीन होकर खड़ी है एकाकी,
जिसकी डाल पर बंदर की तरह उछल कूद करते थे कान्हा
उदास हैं गायें, यमुना किनारे नहीं बचे-बचे उनके चारागाह
ग्वाल-बाल-सखियाँ राह निहारती है कृष्ण की
मथुरा जाने वाले राजमार्ग पर
किसी पथिक से उसे नहीं मिलती है सूचनाएँ
उड़ती खबरें आती हैं कानों में फुसफुसाती हुईं
वह तो चला गया है सुदूर द्वारिका
नहीं आते उसके संदेश, न खत, न खबरें
जरासंधों, पोंड्रुकओंं की उत्पात बढ़ती जा रही है ब्रज भूमि में
यमुना में नहाने गई कुबरियों, राधाओं के साथ हो रहा है दुष्कर्म
वर्षों से घर में सहम कर बैठी है ललिता, विशाखा
कभी नहीं जाती हैं समीप वाले सब्जी के खेत में
नरकासुर के भय से
सब दुर्गतिओं को देखती-झेलती यमुना
तरसती हुई बंसी की धुन सुनने को बेताब
सूखते जा रहे हैं उसके अश्रुपूरित नेत्र
धीमी होती जा रही उसके नीले जल में।