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बीती आधी से भी अधिक रात / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
पूरब से धीरे-धीरे उठकर,
तिरता आया मन्थर जो हिमकर,
नमित हो रहा नित, ज्यों हो पतंग खंडित या सुरतरु का रजत-पात।
बहती पुरवैया धीरे-धीरे,
बजते बंसी-बन सरिता-तीरे,
उन्मन-उन्मन मन, सिहरन से सहमा तन, सुध कर ऐसी कौन बात?
क्या है यह, कोई बतलाए तो,
पागल इस मन को समझाए तो,
भरमाता आता, सपना बन मँड़राता, पलकों पर छलका प्रभात!