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बुख़ार / अमित गोस्वामी
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मैं सर्द रात अलाव जला तो सकता था
मगर अँधेरे की आदत है मेरी आँखों को
ये डर था रोशनी आँखों में चुभ न जाए कहीं
सो तेरी यादों की मद्धम सी आँच में मैंने
तमाम ख़्वाब, सभी हसरतें जला डालीं
और अब ये हाल कि ठिठुरन तो जा चुकी कब की
मगर बदन है, कि जलने लगा भट्टी सा
मेरे मसीहा! मैं कल रात से बुख़ार में हूँ