भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुन्दियाँ पड़ने लगीं ! / कांतिमोहन 'सोज़'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आली जग की उलट गई रीत बुन्दियाँ पड़ने लगीं !
प्यार हारा ज़माना गया जीत बुन्दियाँ पड़ने लगीं ।।

अभी आया नहीं मनुआ का मीत बुन्दियाँ पड़ने लगीं !
अभी ज़ाहिर हुई न मोरी प्रीत बुन्दियाँ पड़ने लगीं !
अभी खिला है कमल न सिरीस बुन्दियाँ पड़ने लगीं I
अभी जले नहीं संझा के दीप बुन्दियाँ पड़ने लगीं !
अभी गाए नहीं मैया ने गीत बुन्दियाँ पड़ने लगीं !
अभी मिला नहीं बाबा का असीस बुन्दियाँ पड़ने लगीं !
अभी प्यासी है सागर की सीप बुन्दियाँ पड़ने लगीं !
प्यार हारा ज़माना गया जीत बुन्दियाँ पड़ने लगीं ।।

आली जग की उलट गई रीत बुन्दियाँ पड़ने लगीं !
कहके आया नहीं मनुआ का मीत बुन्दियाँ पड़ने लगीं I
प्यार हारा ज़माना गया जीत बुन्दियाँ पड़ने लगीं ।।

बचपन में सुने एक गीत का रूपान्तर