भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बूढ़ी रात / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बूढ़ी रात
भोर खाँसती खड़ी
द्वार पर
देखी डरी-डरी
बूढ़ी रात उसासें भरती
जाने कब गुजरी।

एक पोटली पड़ी राह में
कुछ बिखरे सपने
काजल की डिबिया
कुछ बिन्दी
हाथों के कँगने
एक बगल में फटी गोदड़ी
भूख पड़ी पसरी।

अच्छे दिन वाली गाड़ी के
पहियों से कुचले
कुछ बच्चे ले उड़े खिलौने
कुछ रोते मचले
उभरे दर्द
फफोले टीसें
आँखें भरी-भरी।

दोनों हाथ उठाए
गूँगे
जय जयकारों में
दौड़ रहे हैं
पूँछ हिलाते
कुछ मनुहारों में
चढ़ी दुपहरी
धूप बन्दिनी
बँगलों में ठहरी।