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बूढी स्मृतियों की धूमिल छायाएं / योगेंद्र कृष्णा
Kavita Kosh से
महानगरीय रफ्तार में भागती
आकाश छूती इमारतों के
गलियारों में
आज भी
मंडराती हैं
हाशिए पर छूट गईं
बूढ़ी स्मृतियों की
धूमिल छायाएं
रफ्तार में ध्वस्त
इमारतों के मलबों से झांकती
स्मृतियों की झुर्रियां और खरोंचें
उलींच दी जाती हैं
बंजर पगडंडियों पर
बार-बार
फिर भी
रफ्तार में भागती
अपनी जड़ों से विलग
अधूरी दुनिया को
पूरा करने की
अदम्य लालसा लिए
नया जन्म ले कर
लौटती हैं हर बार
निराकार
बूढ़ी स्मृतियों की
धूमिल छायाएं
शायद
दूसरी दुनिया के
दण्ड-विधान में
शामिल है उनका
इस तरह
बार-बार लौटना