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बेच आये पुरखों की थाती / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
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हाँ, बच्चो!
बेच आये हम भी कल पुरखों की थाती
यों उसमें था भी क्या
पिछवाड़े सूरज था
अगवाड़े एक नदी बहती थी
सूरज था चुका हुआ
और नदी बूढ़ी थी
पता नहीं, वह क्या-क्या कहती थी
एक चीज और, हाँ
पुरखों की जली हुई छाती
ख़ुशबू थी कुछ
असली फूलों की
उसका भी, बोलो, हम क्या करते
लोगों ने कहा यही
बार-बार - भाई जी
इससे तो पेट नहीं भरते
लाये हम मुफ़्त में
नई-नई खुशबुएँ विजाती
देवता पुराने थे
पर उनकी कीमत थी खूब लगी
'ग्लोबल' बाज़ार में
यहाँ पड़े रहते थे मंदिर में
वहाँ चुने गये थे
शाही दीवार में
बदले में उनके ही
हम हुए हैं युवा ययाती