बेबस थे दिन तो सहमी हुई रात क्या कहें / पवन कुमार
बेबस थे दिन तो सहमी हुई रात क्या कहें
गुज़रे तेरे बगैर जो लम्हात, क्या कहें
हमसे न पूछ यार यहाँ हाल-ए-मुंसिफी
अच्छे नहीं है अपने ख़यालात क्या कहें
पूछा किसी ने जब कभी फ़ाकाकशी का हाल
आँखों ने साफ कह दिए हालात, क्या कहें
आगाज-ए-गुफ़्तगू को ये उम्मीद खा गई
दोनों को इन्तजार-ए-पयामात, क्या कहें
बस इस उमीद पर कि हमीं राज खोल दें
वो कितना गुफ़्तगू में था मोहतात क्या कहें
दो-तीन रोटियों के सवाली थे आठ-दस
सहरा में चार बूंद की बरसात, क्या कहें
बातें कहीं की, ध्यान कहीं और दिल कहीं
वो गैर वाजिबी सी मुलाक़ात, क्या कहें
आमद थी उसकी जैसे कि खुशबू बिखर गई
अल्फाज़ , ख़ुशबुओं के पयामात, क्या कहें
फाकाकशी = भूखा/निर्धनता, आगाज़-ए-गुफ्तगू=बातचीत का आरंभ, गैर वाजिबी=अनावश्यक