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बेरोज़गार / शरद कोकास

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वे लिख रहे हैं अर्ज़ी
उन्हें भी इंसान समझा जाए
उनके पास भी हैं अनंत इच्छाएँ
वे जैसे हैं
वैसे नहीं आए थे दुनिया में

उनकी आँखों में थे कुछ हसीन ख़्वाब
इरादे थे मौत से अटल
एक रास्ता था
सुन्दर चौड़ा चमचमाता हुआ
तराजू के एक पलड़े पर थी
एक अच्छी-खासी नौकरी
दूसरे पलड़े पर वे रखते रहे
अपनी क़ाबिलियत और तजुर्बा
हर बार पाते रहे
अपना पलड़ा उठा हुआ

वे देखना चाहते थे
ज़िन्दगी की धूप का चढ़ाव
वे गाना चाहते थे
खुशहाली का राग
ज़मीन तैयार की उन्होंने
उम्मीदों के बीज बोए
थोड़ा सा लिया हौसला
कूद पड़े मुश्किलों के दरिया में

फिर भी बिखरते रहे उनके स्वप्न
रास्ते खो गए धुन्ध में
मुँदने लगीं आँखें
रुँधने लगा गला

कमज़ोर बाजुओं से
वे लिखते रहे अर्जि़याँ
और सोचते रहे
कभी तो पहुँचेंगी वे
सही लोगों तक।

-1994