बेवजह-सी ज़िंदगी को बावजह कहता रहा / राजेन्द्र टोकी
बेवजह<ref>अकारण</ref>सी ज़िन्दगी को बावजह<ref>सकारण</ref> करता रहा
और यूँ लम्हा-ब-लम्हा<ref>प्रतिपल</ref>ख़ुदकुशी
दास्ताँ<ref>कहानी</ref>सुन कर मेरी सबने उदासी ओढ़ ली
मैं अकेला ही था जो उस बज़्म<ref>सभा</ref>में हँसता रहा
ज़िन्दगी के फूल खिलते भी तो खिलते किस तरह
वर्क़े-गुल<ref>फूल की पँखुड़ी</ref>ही उम्र का जब हर बरस झरता रहा
हसरतों, नाकामियों से थी भरी झोली मेरी
दर्द का कश्कोल<ref>भिक्षापात्र</ref>ले कर फिर भी मैं फिरता रहा
ख़्वाहिशें दिन की तरह पल-पल जवाँ होती रहीं
जिस्म सूरज की तरह पल-पल मगर ढलता रहा
रूह का धागा है कैसा देखने के शौक़ में
मोम का पैकर<ref>शरीर</ref>लिए मैं धूप में फिरता रहा
इस उदासी का सबब कुछ भी नहीं था दोस्तो
ये मुखौटा था जो असली आपको लगता रहा
वो फ़क़त इक झूठ था, वहमो-गुमाँ<ref>संशय और संदेह</ref>का नाम था
डर से मैं सहमा हुआ जिसको ख़ुदा कहता रहा