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बेवजह वो यूँ मुझ पे इनायत करे है / मेहर गेरा
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बेवजह वो यूँ मुझ पे इनायत करे है
इक अब्रे-रवां जिस तरह बरसात करे है
ग़म सिर्फ उसी शख्स की मीरास है यारो
जो ग़म तो सहे हंस के मगर बात करे है
अब ढूंढता फिरता है तू कदमों के निशां क्यों
क्यों ज़िन्दगी यूँ नज़्र-ए-रवायात करे है
मेरे ही लिए वक़्फ़ थी जिस शख्स की हर बात
वो शख्स मेरे साथ न अब बात करे है
इस दर्द के माहौल को अपनाएं तो बेहतर
वरना कोई जैसे गुज़र औक़ात करे है
फ़ुर्सत है किसे चलती हुई राह पे ठहरे
इस दौर में अब कौन तिरी बात करे है
तन्हाई में ऐसे भी लगे है कभी ऐ मेहर
जिस तरह कोई मुझसे सवालात करे है।