बेशर्मी से तान के सीना हँसते हैं ।
लोग आजकल तोड़ के रिश्ता हँसते हैं ।
सूख कभी जाते हैं जब बहते-बहते,
दरियाओं को देख के सहरा हँसते हैं ।
मैंने देखा है फ़क़ीर की आँखों में,
क़ाबा, काशी और मदीना हँसते हैं ।
अपनी रोती आँखों को समझाकर हम,
अपने घर में होकर तन्हा रोते हैं ।
शक़ल देखने लायक होती लोगों की,
हाथ में जब हम लेकर कासा<ref>कटोरा</ref> हँसते हैं ।
अक्सर यही तो होता है रोते-रोते,
बच्चे माँ का देख के चेहरा हँसते हैं ।
बचपन के हैं दोस्त हमारे ऐसे जो,
देखे के टूटा हुआ खिलौना हँसते हैं ।
शब्दार्थ
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