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बेसब्रों के नाम / मुकेश निर्विकार

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खरीद डालों
इधर-उधर
नगर-नगर
शहर-शहर
पूरे देश-दुनिया जहां में
अपने लिए बहुत सारे घर
एक कोठी इधर,
एक कोठी उधर
फिर खाओ उन्हें
पालकर
दिल में
चिंता-फिकर!
बहुत खूब!
बढ़ा लो अपनी दिक्कतें
अपनी अंतहीं हवस
धन-लोलुपता, लिप्सा
व रक्त-पिपासा
एक बल पर
खरीद डालो कंक्रीट की
कठोर दरों-दीवारें
गहरी नींद निगलते
अपने मानसिक तनाव
भय, असंतुष्टि, कलेश
लालच के महल-दुमहले
व ऊँची-ऊँची दरो-दीवारें
ताकि तुम कैद हो जाओ
उनमें स्वयं ही!

वैसे यही तुम्हारे अंदर
गहरी पैठ बनाए राक्षस की
अंतहीं कैद होगी
यहीं तुम्हारे तमाम पाप कर्मों की सजा भी
यही प्रकृति का
सनातन न्याय
यही ‘सत्य मेव जयते’ की
अंतिम अनुभूति!