भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बैठी मँच मानिक को फेरत रई को / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बैठी मँच मानिक को फेरत रई को ,
औध माधुरी की मूरति सी सूरति सनेह की ।
सावन सुहावन को गावन सखीन ,
साथ तैसेई सोहाई आई छटा घटा मेघ की ।
ता समै बजाई कान्ह बँशी तान आई ,
कान सुधि सी हेंरानी मैन वान वेह की ।
दूध की न दही की न माखन मही हू की ,
न कुल की कहीँ की नहिँ देह की न गेह की ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।