बैठी राधा थीं यमुना-तट / हनुमानप्रसाद पोद्दार
बैठी राधा थीं यमुना-तट मन-ही-मन कर रहीं विचार।
मेरे कारण प्रियतमको होता है कितना कष्टस्न् अपार॥
आते मेरे पास सभी आवश्यक कार्योंका कर त्याग।
सहते हिम-आतप-वर्षा अति, रखते नहीं कहीं कुछ राग॥
बड़े-बड़े तार्किक, सिद्धान्ती, तवजानी, सिद्ध, विदेह।
निन्दा करते, खण्डन करते कर भगवाामें संदेह॥
महान ईश्वर सब लोकोंके, सबके एकमात्र आधार।
सर्वातीत, सर्वमय, जिनसे सबका होता है विस्तार॥
वही परात्पर प्रभु करते हैं, मुझमें कैसा पावन मोह!
नहीं पलकभर भी सह सकते मेरा कभी नितान्त बिछोह॥
परम प्रेममय, प्रेम-रसिक-वर प्रेम-विवश वे प्रेमाधार।
मेरे मनके तोष-हेतु वे करते सब कुछ अङङ्गीकार॥
कहाँ नगण्य, तुच्छ मैं, रूप-गुणोंसे विरहित, दोषागार।
कहाँ सर्व सद्गुण-सुषमा-सौन्दर्य अप्रतिमके भंडार॥
मेरे दोषोंपर प्रियतमकी नहीं कदापि दृष्टि जाती।
लगता-उनके सुखकी मुझमें सब गुणराशि स्थान पाती॥
सब भगवाा भूल, वरण करते वे कुत्सा, कष्टस्न्, कलङङ्क।
देख तनिक मुख लान तुरत हो आतुर वे भर लेते अङङ्क॥
नहीं तनिक भी लज्जा करते, करते नहीं तनिक संकोच।
ध्यान नहीं देते कदापि वे कोई कहे भला या पोच॥
मेरे वे सर्वस्व एक ही, वे ही मेरे इह-परलोक।
गति-मति-रति, मन-जीवन वे ही, एक मात्र वे ही आलोक॥
इस मेरी बाह्यस्नयन्तर स्थितिका उनको है पूरा जान।
इसीलिये वे मुझपर सदा निछावर रहते हैं भगवान॥
कैसे भी मैं, क्षण भर भी, इस स्थितिका त्याग न कर पाती।
सहते उन्हें देख पर-निन्दा-श्रम, जलती मेरी छाती॥
यद्यपि उनको होता अति सुख मुझे देखकर सुखी अपार।
पर मुझको लगता, वे सहते कष्टस्न् नित्य अति प्राणाधार॥
कैसे, मैं क्या करूँ, मिटे जिससे यह प्रियका कष्टस्न् तुरंत।
मेरे कारण होनेवाले कष्टस्नेंका हो कैसे अंत’॥
इस दुश्चिन्ताकी ज्वालासे जला हृदय, वे हुर्ईं अचेत।
स्वर्ण-देह वे पड़ीं भूमिपर मलिन-बदन सौन्दर्य-निकेत॥
प्यारे वहीं खड़े थे, गिरते देख तुरंत ले लिया गोद।
सिर सहलाने लगे स्व-कर मुखचन्द्र देखने लगे समोद॥