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बोलो क्यों दिन रात बुझे यों रहते हो / रंजना वर्मा

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बोलो क्यों दिन रात बुझे से रहते हो।
मौन हो पर आँखों से सब कहते हो॥

आँसू बन कर हो नयनों में बसे हुए
छूते ही गम का दरिया बन बहते हो॥

दुनियाँ है बेदर्द सताना ही जाने
रह कर तुम खामोश सभी दुख सहते हो॥

फूलों से काँटों की चुभन सहेज रहे
अधरों पर मुस्कान खिलाये रहते हो॥

कितने ही आघात हृदय पर खाये हैं
नहीं बुलन्दी से पर अपनी ढहते हो॥

घावों पर दो लगा उमीदों का मरहम
दहक रही बेबसी नयन में दहते हो॥

आज समंदर एक नया सूरज उगले
किरणों की उत्ताल लहर बन बहते हो॥