मेरे कंधों पर, बादल-सा झुक, जीवन-भार दिया था क्यों?
मेरा सपना परिचित ही था,
जो हूँ मैं भी आज, विदित ही था,
मेरी उजड़ी फुलवारी में
आते न अगर तो हित ही था;
ठुकराना ही था प्राण-सुमन, तो अंगीकार किया था क्यों?
तुमने मरु को मधुमास दिया,
रस-हास दिया, उल्लास दिया,
अर्पण करके उर का दर्पण
मन को खोया विश्वास दिया;
बँधते-बँधते जो टूट गया, ऐसा उपहार दिया था क्यों?