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भटकते हुए / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
भटकते-भटकते
आज भी
मिल ही जाते हैं
मनुष्य
भीड़ भरी बस में
मजदूर स्त्री को
अपनी सीट देकर
खड़ा हो जाता है
एक बुजुर्ग आज भी
अंधे की लाठी थाम
सड़क पार करा देता है
आज भी कोई सिपाही
भाषा और मनुष्य
के बीच
भटकते-भटकते ही
मिलती है कविता
कविता में भटकते
भटकते ही पाता हूँ
अपने को मैं
खुद के रूबरू
कविता में भटकते
भटकते ही पाता हूँ
सभ्यता की विस्मृति में
खोई चीजें तमाम
समय के आतप और आतंक से
बचा कर छिपा दिये हैं
किसी ने यहाँ कविता में
पतंगे, गुड़िया, गुल्ली-डंडा,
स्वप्न, दूध, सरोकार
और
और शायद प्यार