भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भरकी में चहुपल भईसा / लक्ष्मीकान्त मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 (l)
आवेले ऊ भरकी से
कीच पांक में गोड लसराइल
आर-डंडार प धावत चउहदी
हाथ में पोरसा भ के गोजी थमले
इहे पहचान रहल बा उनकर सदियन से

तलफत घाम में चियार लेखा फाट जाला
उनका खेतन के छाती
पनचहल होते हर में नधाइल बैलहाटा के
बर्घन के भंसे लागेला ठेहून
ट्रेक्टर के पहिया फंस के
लेवाड़ मारेले हीक भ
करईल के चिमर माटी चमोर देले
उखमंजल के हाँक-दाब

हेठार खातिर दखिनहा, बाल के पछिमहा
भरकी के वासी मंगनचन ना होखे दउरा लेके कबो
बोअनी के बाद हरियरी, बियाछत पउधा के सोरी के
पूजत रहे के बा उनकर आदिये के सोभाव
जांगर ठेठाई धरती से उपराज लेलन सोना
माटी का आन, मेहनत के पेहान के मानले जीये के मोल

 (ll)
शहर के सड़की पर अबो
ना चले आइल उनका दायें-बायें
मांड-भात खाए के आदी के रेस्तरां में
इडली-डोसा चीखे के ना होखल अब ले सहूर
उनकर लार चुवे लागेला
मरदुआ-रिकवंछ ढकनेसर के नाव प
सोस्ती सीरी वाली चिट्ठी बांचत मनईं
न बुझ पावल अबले इमेल-उमेल के बात
कउडा त बइठ के गँवलेहर करत
अभियो गंवार बन के चकचिहाइल रहेले
सभ्य लोगन के सामने बिलार मतिन
गोल-मोल-तोल के टेढबाँगुच
लीक का भरोसे अब तक नापे न आइल
उनका आगे बढे के चाह

माँल में चमकऊआ लुग्गा वाली मेहरारू
कबो न लुझेलीसन उनका ओर
कवलेजिहा लइकी मोबाइल प अंगुरी फेरत चोन्हा में
कनखी से उनका ओर बिरावेलीसन मुंह
अंग्रेजी में किडबिड बोलत इसकोलिहा बाचा
उनका के झपिलावत बुझेलसन दोसरा गरह के बसेना
शहरीन के नजर में ऊ लागेलन गोबरउरा अस
उनका के देखते छूछ्बेहर सवखिनिहाँ के मन में भभके लागेला
घूर के बास, गोठहुल के भकसी, भुसहुल के भूसी

 (lll)

जब ले बहल बा बजरुहा बयार
धूर लेखा उधिया रहल बा भरकी के गाँव, ओकर चिन्हानी
खेत–बधार, नदी–घाट, महुआ–पाकड़
बिकुआ जींस मतीन घूम रहल बाड़ीसन मंडी के मोहानी प
जहवाँ पोखरी के गरइ मछरी के चहुपता खेप
चहुपावल जा रहल बा दूध भरल डिब्बा
गोडार के उप्रजल तियना

खरिहान में चमकत धान, बकेन, दुधगर देसिला गरु के देसावर
समय के सउदागर लूट रहल बा
हमनी के कूल्ह संगोरल थाती
धार मराइल बा सपना प

दिनोदिन आलोपित हो रहल बा मठमेहर अस
धनखर देस पुअरा से चिन्हइला के पहचान
मेट गइल फगुआ चइता–कजरी के सहमेल
भुला गइल खलिहा बखत हितई कमाये जाये के रेवाज
ख़तम हो रहल बा खरमेंटाव के बेरा
सतुआ खाये माठा घोंटे के बानि
छूट गइल ऊ लगन जब आदमी नरेटी से ना
ढोढ़ी के दम से ठठा के हँसत रहे जोरदार

जवानी बिलवारहल बाड़े एहीजा के नवहा
पंजाब, गुजरात, का कारखाना में देह गलावत
बूढ़ झाँख मारताडे कुरसत ज़माना के बदलल खेल प
बढ़ता मरद के दारु, रोड प मेहरारू के चलन
लइका बहेंगवा बनल बुझा रहल बाड़ें जिये के ललसा
सूअर के खोभार अस बन रहल बा गाँव-गली
कमजोर हो रहल बा माटी के जकडल रहे के
धुडली घास, बेंगची, भरकभाड के जड़न के हूब

 (IV)
दिनदुपहरिये गाँव के मटीगर देवाल में
सेंध फोरत ढुक गईल बा शहर
कान्ही प लदले बाज़ार
पीठी प लदले विकास के झुझुना
कपार प टंगले सरकारी घिरनई
अंकवारी में लिहले अमेरिकी दोकान

एह नया अवतार प अचंभों में
पडल बा गाँव भरकी के
ना हेठारो के ना पूरा दुनिया-जहान के
जइसे सोझा पड़ गईल होखे मरखाहवा भंइसा
भागल जाव कि भगावल जाव ओके सिवान से
भकसावन अन्हरिया रात में लुकार बान्ह के.