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भरम / यतींद्रनाथ राही

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कुछ भरम थे
पलक पोसे
कुछ धरे भर आँजुरी

द्वार भटके मन्दिरों के
देवता मिलते कहाँ
आदमी के दरस भी तो
अब हुए दुर्लभ यहाँ
खो गए गोकुल भटकते
मॉल में बाज़ार में
खेत डूबे
शहर के बढ़ते हुए आकार में
नाम जपते उमर बीती
झर गयी हर पाँखुरी।

कौन है
अपना-पराया
प्यार क्या
विश्वास क्या
स्वार्थ में लिपटे हुए सब
ष्वास क्या निश्वास क्या
बाँधते आकाश को
पथरा गयी बाहें निवल
बाँसवन को चाहती
घायल हुईं चाहें विकल
हो गयी यमुना मलिन
कुंठित हुई सी
बाँसुरी।