भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भरम / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
कुछ भरम थे
पलक पोसे
कुछ धरे भर आँजुरी
द्वार भटके मन्दिरों के
देवता मिलते कहाँ
आदमी के दरस भी तो
अब हुए दुर्लभ यहाँ
खो गए गोकुल भटकते
मॉल में बाज़ार में
खेत डूबे
शहर के बढ़ते हुए आकार में
नाम जपते उमर बीती
झर गयी हर पाँखुरी।
कौन है
अपना-पराया
प्यार क्या
विश्वास क्या
स्वार्थ में लिपटे हुए सब
ष्वास क्या निश्वास क्या
बाँधते आकाश को
पथरा गयी बाहें निवल
बाँसवन को चाहती
घायल हुईं चाहें विकल
हो गयी यमुना मलिन
कुंठित हुई सी
बाँसुरी।