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भाई कवि! / दिनेश कुमार शुक्ल

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रचना से बड़ी है
रचयिता की आँख, जहाँ
कभी डूबता है सत्य
कभी उतराता है

लेखनी की नोंक पर
सँभालते भुवन-भार
सारे काव्य-कौशल का
मर्म काँप जाता है

साँप और डोरी का तो
भ्रम सदा से ही रहा
किन्तु इस बहाने साँप
बचा चला जाता है

देखते हो कुछ
और कहते हो और कुछ
सारा कवि-कर्म ही
प्रलाप हुआ जाता है