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भाई सोचें / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
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आप अकेले ही
जंगल में हरियाये
भाई सोचें, यह कैसा सुख
दहे आग में
अपनी रितु के बीज सभी
नदी-किनारे
सुलग रहे हैं पेड़ अभी
सब मुरझाये
आप नहीं बस मुरझाये
भाई सोचें, यह कैसा सुख
राख-हुए दिन के माथे पर
सिंदूरी टीका
यह सूरज भी बड़ा बावरा
इसका जस फीका
इधर चिता के पास
खड़ा यह मुसकाये
भाई सोचें, यह कैसा सुख
जंगल में एकाकी होकर
आप करेंगे क्या
अगले पतझर में भी, भाई
नहीं झरेंगे क्या
अभी अनूठेपन से
अपने भरमाये
भाई सोचें, यह कैसा सुख