भिन्न हैं प्रारब्ध सबके / आनन्द बल्लभ 'अमिय'
भिन्न हैं प्रारब्ध सबके भिन्न ही है जो उपस्थित
बुद्धि में जो चल रहा है गति वही होगी सुनिश्चित।
सत्य का पथ, धर्म का कर, भूलकर भी छोड़ना मत।
शुद्ध कर ले मन, 'सभी का हो भला' कह ले अनवरत।
याद करना मास नव, गह्वर जठर के चक्र सारे।
और लग्ना में रहे शनि, राहु, मंगल वक्र सारे।
इसलिये प्रिय! नित्य माला रामनामी की जपा कर
क्या पता कलि दाब दे निज काँख, कब यह है अनिश्चित।
मन चपल हय है, कलेवर क्षेत्र में करता विचारण।
थाम ले वल्गाएँ, ऐन्द्रिक काम कर निग्रह निवारण।
सोच रख अम्लान, अर्जित पुण्य दुर्गति से बचाना।
एषणा का पीर पर्वत ध्यान, जप, तप से ढहाना।
इसलिये प्रिय! साधनाओं का सरलतम याग कर ले
क्यों अहर्निश भोग लिप्साओं में रहता है निमज्जित?
रच रहा है नित्य तरुणी देह यौवन की कहानी।
मूढ़ मन कुविचारगामी होके भी होता गुमानी।
काश तू स्वाध्याय करता सज्जनी संगत लगाता।
चित्त में हरिनाम धर हरिनाम की वीणा बजाता।
इसलिये प्रिय! कह रहा हूँ सोच को पावन बनाके
बुद्धि में हरि रूप धर, कैवल्य कर लेना समुच्चित।
भिन्न हैं प्रारब्ध सबके भिन्न ही है जो उपस्थित
बुद्धि में जो चल रहा है गति वही होगी सुनिश्चित।