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भीतर रहती आदिम रितु / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
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कैसा सुख था
जैसे ही हम बाहर निकले
वैसे ही बरखा आई
सड़क-दर-सड़क सारे रस्ते
रहे भीगते हम दोनों
जलतरंग होकर बजने में
कभी नहीं थे कम दोनों
तुम्हें याद है
'मंकी ब्रिज' वाले ठेले से
हमने थी कुल्फी खाई
नदी-किनारे हम बैठे थे
गीली रेती पर
और बनाये थे हमने
कितने ही बालूघर
उस दिन कैसा
सटकर बैठे हमें देखकर
नदिया भी थी बौराई
घिरी मेघमाला के नीचे
हमने देखा था अचरज
बिजली तड़पी थी धारा पर
हँसा घाट पर था गुंबज
और हमारे
भीतर रहती आदिम रितु ने
ली थी मीठी अँगड़ाई