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भूमिका (हरिवंश सिलाकारी) / शलभ श्रीराम सिंह

गोत्र शलभ


"शलभ से हिन्दी कविता का एक नया गोत्र प्रारंभ होता है|
उन्हें किसी मठ में शरण लेने की आवश्यकता नहीं है।"

 ---नागार्जुन

शलभ को अलग पहिचान देने वाली और अपने समय का महत्त्वपूर्ण कवि बनाने वाली चीज़ है उनकी व्यापक, सकारात्मक पक्षधरता और पूर्वाग्रह से पूर्णतः मुक्त जीवन-दृष्टी, जो परम्परा से आधुनिकता के बीच एक सेतु का निर्माण करती है, न कि अपरिचय और अलगाव की खाई का। शलभ समकालीन साहित्य के जंगल में एक दोहरी लडाई लड़ रहे हैं। अपने बिरादरी-भोज में उनका प्रवेश हर पंक्ति में बैठे लोगों को परेशान कर देता है और यद्यपि उनको नकारना असंभव है, स्वीकारना भी कुछ आसन नहीं।
              
समग्र मानवीय चेतना, सम्पूर्ण चराचर विश्व, समस्त शरीरी-अशरीरी ब्रहमांड, इतिहास-परम्परा बोध के साथ कदम-ब-कदम चलती विज्ञानं-तकनीकी और नवजात आर्थिक-औद्योगिक संस्कृति से प्रभावित समाज और उसके परिवर्तनशील जीवन मूल्यों की पहिचान और समझदारी, उसकी पतनशीलता और कुंठा ही नहीं, उसकी संभावनाएं भी उनकी कविता में जीवंत अभिव्यक्ति पाती हैं।
                              
उनका युग बोध उपदेशात्मकता के सतही स्तर से ऊपर है, वे जमीन को अकुलष, चकित नेत्रों से देखते है, उनकी कविता इस शापग्रस्त युग में बदलाव की पीड़ा को अभिव्यक्त करती है, वे नारीत्व को अनुस्यूत, एकात्म रूप से देखते हैं, उनमे पर्वत जैसी दृढ़ता, पयस्विनी जैसी मृदुता है, वे पृथ्वी को जड़ पदार्थ नहीं मानते, उसके समक्ष प्रणत होने में उनकी आसक्ति है, उनमें ग्रहांतर पर पाँव रखने को आतुर मनुष्य की अविराम यात्रा की चेतना है, वे तात्कालिकता के सन्दर्भ में भी शाश्वत बिषय-वस्तु से निरंतर जुड़े हैं-- यह सब कुछ समय-समय पर विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्त्याकारों, आचार्यों और आलोचकों द्वारा शलभ के बारे में कहा जा चुका है।
                  
महेंद्र प्रताप सिंह के अनुसार शलभ संवाद -धर्मी कविता के सहज पाठकों की मुक्ति के कवि हैं। जगदीश गुप्त के अनुसार उनका शब्द-सामर्थ्य आसाधारण है। आचार्य कल्याणमल लोढ़ा के अनुसार उनकी भाषा में न कृत्रिम प्रवाह है, न आरोपित शब्द-चयन। विजय बहादुर सिंह उन्हें शब्द-छंद के मिश्रित संस्कार वाले कवि मानते हैं। जिनकी रचना बँधी-बँधाई चौहद्दियों का अतिक्रमण करती हैं।
               
इंद्र बहादुर सिंह ने शलभ के संग्रह 'अतिरिक्त पुरुष' की प्रस्तावना में लिखा था की वे शब्दों-अर्थों की लय से पृथक 'बिम्बों की लय' के साथ नितांत नए रूप में पदक्षेप करने वाले कवि हैं। सुधा अरोड़ा कहती हैं कि शलभ जैसे प्रतीक अंग्रेज़ी कविताओं में ही मिलते हैं।
              
यह कहा जा सकता है कि शलभ कविता को जन-सामान्य की वैचारिकता और अनुभूति के समानांतर यात्रा के योग्य बनाये रखना चाहते हैं और उन छद्म-प्रयोगवादी रचनाकारों से अलग हैं जो दुरूहता और जटिलता की आयातित शैम्पेन में मौज-मस्ती करते हैं जहाँ उनके साथ सामान्य जन नहीं, उनकी बिरादरी के वैसे ही ऐयाश रचनाकार होते हैं जो साहित्य के एक नये आभिजात्य की स्रृष्टि कर रहे हैं।
                                    
युयुत्सावादी काव्य-दर्शन के प्रमुख प्रवक्ता, गोरिल्ला आलोचना के प्रवर्तक, नवगीत -धारा को नयी अर्थवत्ता, शब्दावली और छंद देने वाले (इन्द्र बहादुर सिंह के अनुसार) शलभ साहित्यकारों आलोचकों, और हमपेशा कवियों की बिरादरी में खूब जाने पहचाने जाते हैं और उनके कथ्य और शैली पर काफी बड़े पैमाने पर, बड़ी तादाद में प्रमाणिक व्यक्तियों ने पूरी जवाबदारी के साथ अपनी राय का इज़हार किया है। फिर भी यह सच है कि शलभ का समग्र- मूल्यांकन अभी होना है। यह मूल्यांकन न हो पाना किसी सुनियोजित साहित्यिक षड्यंत्र का हिस्सा
नहीं है, किसी जानी-मानी फ्रेम में "फिट" न कर पाने की हमारे आलोचकों की मजबूरी का परिणाम है जो रचनाकार को किसी फ्रेम में "फिट" किये बिना उसका मूल्यांकन करने की कला से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं। फिर शलभ उनको चारा भी नहीं डालते। अपनी शर्तों पर जीने, लिखने और माने जाने की उनकी जिद ग़ालिब की इन पंक्तियों की याद दिलाती है-

बंदगी में भी अजब आज़ादह-व-खुदबीं हैं कि हम
उलटे फिर आये, दरे-काबा अगर वा न हुआ।

परन्तु क्या मूल्यांकन होने न होने से शलभ की काव्य-यात्रा रुक सकती है? वह जारी है, प्रति दिन नई प्राणवायु से ऊर्जावान, नये क्षितिज, नये आयामों की तलाश करती, आदमी के भीतर और बाहर की, बिना लाग-लपेट के, परन्तु अनुराग के साथ जाँच-पड़ताल करती, उसकी चेतना को अपने शब्द-छंद-बिम्ब और लय देकर अपने आपसे साक्षात्कार के लिए उत्प्रेरित करती हुई। वह सृष्टि-रचना की उस अदम्य लालसा से प्रेरित है जो निंदा -प्रशंसा, देखी-अनदेखी सुनी-अनसुनी से निरपेक्ष है। वह शिव-तांडव की तरह अपनी अभिव्यक्ति मात्र में सम्पूर्ण है। उसके सामने मूल्यांकन होना, न होना, बहुत छोटी सी बात है। मूल्यांकन न उसमें कुछ जोड़ सकता है न उसमें से कुछ घटा सकता है। वह हमारे साहित्य संसार की जरूरत है , न कि शलभ की।

हरिवंश सिलाकारी