भ्रम था या सत्य / वंदना गुप्ता
वो ठहरे तालाब के पानी में
हिलता पहाड़ी का प्रतिबिम्ब
कुछ पल को सकुचा गया
भ्रम था या सत्य
उलझन में पहुँचा गया
नहीं, सत्य ही था शायद
कुछ खामोश जलते
सुर्ख आग उगलते शहर
यूँ ही ज़मींदोज़ नहीं होते
कुछ तो हलचल हुई होती है
शायद वो ही हलचल थी
शायद वो ही कम्पन था
जो दिखता नहीं मगर होता है
एक आग का धधकता गोला
पहाड़ी के सीने में हर पल धड़कता है
ऊष्मा को निकालने के लिए
साँसों का आवागमन भी जरूरी होता है
फिर चाहे रेत में पानी का भास ही क्यों ना हो
कुछ परतें युग परिवर्तन पर भी नहीं हटतीं
फिर चाहे रंग श्याम हो या सफ़ेद
नीला हो या लाल
रंग भी अपने निशाँ नहीं छोड़ पाते
एक अजब सा बेरंगा, बेढब सा अक्स
हर मोड़ पर लहूलुहान होता
सूर्योदय से सूर्यास्त तक
तालाब के पानी में
अपना प्रतिबिम्ब तलाशता
कभी खुद को निहारता है
तो अक्स ना पहचान पाता है
और तालाब की नीली तलछट में
अपने वजूद की अजनबियत की बू से घिर जाता है
शायद पहाड़ियों का कम्पन
उनका शोर, उनकी साँसें
उनके आँसू
सब मूकदर्शक होते हैं
जीने को मजबूर होने के लिए
बिना किसी पहचान के
सिवाय
उम्र भर तपते शिलाखंड सा खड़े रहने को अभिशापित होकर
फिर हलचल सत्य हो या भ्रम
कौन पुरातत्वविद खोजता है
हर बाद खुदाइयों में संस्कृतियाँ या सभ्यताएँ ही नहीं निकलतीं
फिर चाहे कितनी ही कोशिश कर लो
कुछ शिलालेखों की भाषाएँ अबूझ ही रहती हैं