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मंजि़ल का तो पता ठिकाना कहीं नहीं / अश्वनी शर्मा

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मंज़िल का तो पता ठिकाना कहीं नहीं
रोज सफर है, लेकिन जाना कहीं नहीं।

ज़िस्म सजाना चलन चलाया आदम ने
थोड़ी सी ये रूह सजाना कहीं नहीं।

धर्म, नस्ल और जात-पांत में भेद कहां
ये बिरादरी में कह पाना, कहीं नहीं।

मर जाने के लाखों कारण रोज मिले
पर जीने का एक बहाना, कहीं नहीं।

जिन राहों पर पहले चला नहीं कोई
उन राहों पर आना-जाना कहीं नहीं।

बरसों पहले दीन चलाया अकबर ने
फिर वैसा ही चलन चलाना कहीं नहीं।

पीढ़ी को बर्बाद किये जाते नादाँ
एक सलीका दे वो दाना कहीं नहीं।