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मकान है घर नहीं / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
छत के शहतीर
कील बन रहे
आँगन की तुलसी
काँटेदार नागफ़नी
डायनिंग टेबुल पर
चाय के प्याले
काँच-काँच किरकिरे
साँझा चूल्हा पर
रोटियाँ नहीं
पक रहा है मन
धुएँ का वन
है ये मकान
परन्तु घर नहीं ।