भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मजमा जमा के बेच / अश्वनी शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मजमा जमा के बेच
कुछ भी बना के बेच।

अहसास हो या रिश्ते
बोली लगा के बेच।

सपने रूमानियत के
रंगीं दिखा के बेच।

लाचारगी औ गुरबत
भौंहें चढ़ा के बेच।

गैरों को बेचना क्या
अपना बना के बेच।

और का ज़िस्म है ये
आधा दिखा के बेच।

गर मुल्क बेचना है
दामन बचा के बेच।