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मधुपुरी गवन करत जीवन-धन / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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मधुपुरी गवन करत जीवन-धन।
लै दाउए संग सुफलक-सुत, सुनि जरि उठी ज्वाल सब मन-तन॥
भई विकल, छायौ बिषाद मुख, सिथिल भए सब अंग सु-सोभन।
उर-रस जर्यौ, रहे सूखे द्वय दृग अपलक, तम व्यापि गयौ घन॥
लगे आय समुझावन प्रियतम, पै न सके, प्रगट्यौ विषाद मन।
बानी रुकी, प्रिया लखि आरत, थिर तन भयौ, मनो बिनु चेतन॥
भावी विरहानल प्रिय-प्यारी जरन लगे, बिसरे जग-जीवन।
कौन कहै महिमा या रति की, गति न जहाँ पावत सुर-मुनि-जन॥