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मधुर मनोहर नील-श्याम-तन / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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मधुर मनोहर नील-श्याम-तन अनुपम छबिमय।
कोटि-कोटि मन्मथ-मन्मथ सौन्दर्य सुधामय॥
कहाँ दिव्य गुण-रूप-राशि वह मुनि-मन-हारिणि।
कहाँ कुरूपा मैं अति कुत्सित तन-मन-धारिणि॥
यद्यपि बाहर नहीं दीखते चिह्न बुरे अति।
पर चल रही अहं-क्षत-धारा हृदय तीव्र गति॥
ममता मनमें भरी, नहीं समता है किंचित्‌।
सदा रागमें रँगी, रागसे संतत सिचित॥
दीख रही ऊपर छायी ठंढक सुख-व्यापिनि।
भीतर जलती अग्रि कामनाकी संतापिनि॥
सहज हृदयका क्रएध छा रहा भीतर-बाहर।
लोभ हृदयमें भरा कर्म करवाता दुखकर॥
हु‌ए प्रकट सब दोष भयानक मेरे समुख।
काँपी, डरी, निराशा-सी छायी मेरे मुख॥
किस साहससे प्रियतमके समीप मैं जाऊँ ?
तन-मन मलिन अपार किस तरह मुख दिखलाऊँ ?
किस मुख उनसे कहूँ, मुझे दो पद-पङङ्कज प्रिय!
शुचि पद-रज दे, मुझे बना दो शुद्ध सवमय॥
मान नहीं मन रहा किंतु, मचला वह अतिशय।
चलो, चलो प्रियकी संनिधिमें, छोड़ो भ्रम-भय॥
उठने लगी, गिरी फिर अपनी ओर देखकर।
घृणित दोषसे पूर्ण हाय! मैं जाऊँ क्योंकर ?
रूप-शील-सौन्दर्य-सद्गुणोंके वे सागर।
अतुलनीय अनुपम सब विधि प्रियतम नट-नागर॥
मेरे सदृश न को‌ई पामर नीच घृणित जन।
मिलनेच्छाका त्याग तदपि करता न हठी मन॥
तम-घन इच्छा करे सूर्यसे मिलनेकी ज्यों।
मेरा मन भी श्याम-मिलन-‌इच्छा करता त्यों॥
पर साहस न जुटा पायी, स्थिति हु‌ई भयानक।
मर्मव्यथा अति असहनीय जग उठी अचानक॥
बाह्य चेतना गयी, पड़ी अब सुध-बुध खोकर।
अंदर प्रकटे श्याम रूप-गुण-निधि मुनि-मन-हर॥
करने लगे दुलार सहज मनुहार अपरिमित।
नहलाने बस, लगे प्रेमधारामें अविरत॥
कहने लगे-’तुहारे जो कुछ बाहर-भीतर-
है, होता है-छिपा न है मुझसे राीभर॥
अहं, ममव, सुराग, कामना, क्रएध-लोभ सब।
है नित मेरे लिये, नहीं कुछ उनमें तब-‌अब॥
किंतु तुहारा प्रेम शील निज-गुण न मानकर।
गुणमें करता दोष-बुद्धि नित सत्य जानकर॥
प्रिये! तुहारा दैन्य सहज पावन अति सुखकर।
अतः नित्य रहता मैं सुख-सपादन-तत्पर॥’
अन्तर्धान हु‌ए सहसा शुचि रस वर्षा कर।
खुले नेत्र अविलब, चेतना आयी सत्वर॥
देखा खड़े सामने मृदु मुसकाते प्रियवर।
हु‌ई कृतार्थ विशुद्ध रसभरी पद-रज पाकर॥