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मन अपना आपा खोता है / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र
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किसी-किसी दिन ऐसा भी होता है
आँगन में तुलसीचौरे पर
नई बहुरिया की
पायल का घुँघरू है बजता
छँट जाता है सारा कोहरा
नई भोर का सपना
आँखों में है सजता
सूरज साँसों में निश्छल बोता है
नदी-घाट से बड़े सबेरे
शंख टेरता है देवों को
पूजाघर में
और पड़ोसी का कुत्ता
दोहराता वह धुन
अनहद स्वर में
पिछले घर में कल-जन्मा बच्चा रोता है
बस्ती का हर कोना-कोना
खुशबू-खुशबू हो जाता है
भरी-दुपहरी
और शिवाले में गाता है
युवा पुजारी
मीठे सुर में गंगालहरी
डूब उसी में मन अपना आपा खोता है