जीवन ही उलझ न जाय कहीं, तन इसीलिए न सिहरता था!
आँखों पर लेकिन बस न चला,
फिर चली आँख, फिर मन मचला;
कुछ इसीलिए तो खग मेरा आँखों से आँख न भरता था!
धरना दे बैठी है पीड़ा,
दे डालूँ आज बची है व्रीड़ा;
जीवन ही माँग न ले कोई, डर से दृगदान न करता था!
अब तो बस पानी-पानी है,
आँखें अपनी हैरानी हैं;
क्या अच्छा था, मैं सूने में उड़-उड़कर चाँद पकड़ता था!