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मन ही मन दुलरा लूँ मैं प्रिय बिम्ब तुम्हारा / अलेक्सान्दर पूश्किन

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मन ही मन दुलरा लूँ मैं प्रिय बिम्ब तुम्हारा
ऐसा साहस करता हूँ मैं अन्तिम बार,
हृदय-शक्ति से मैं अपनी कल्पना जगाकर
सहमे, बुझे-बुझे वे सुख के क्षण लौटाकर,
मधुरे, मैं करता हूँ याद तुम्हारा प्यार।

वर्ष हमारे भागे जाते, बदल रहे हैं
बदल रहे वे हमको, सब कुछ बदल रहा,
अपने कवि के लिए प्रिये तुम तो ऐसे
मानो किसी क़ब्र का ओढ़े तम जैसे,
और तुम्हारा मीत तमस में लिप्त हुआ।

तुम अतीत की मित्र करो, स्वीकार करो
मेरे मन की कर लो अंगीकार विदा,
विदा जिस तरह से हम विधवा को करते,
बाँहों में चुपचाप मित्र को ज्यों भरते,
निर्वासन से पहले लेते गले लगा।
 

रचनाकाल : 1830