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मसलक-ए-इश्क़ बयाँ क्या कीजे / 'मुमताज़' मीरज़ा

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मसलक-ए-इश्क़ बयाँ क्या कीजे
कुफ्ऱ ईमान हुआ जाता है

मुझ से ले ले कोई यादें मेरी
जी परेशान हुआ जाता है

बाग़-बानों को ख़बर है के नहीं
बाग़ वीरान हुआ जाता है

वहशत-ए-दिल के तसद्दुक़ ‘मुमताज’
घर बयाबान हुआ जाता है