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महानगर, लोकतंत्र और मज़दूर / विमलेश त्रिपाठी

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उनके हथौड़े की हर चोट के पहले की स्मृतियाँ
दफन हैं सुरक्षित इन दीवारों की हड्डियों में
एक औरत की देह, बच्चे के हिलते हाथ
हँसी ठिठोली बचपन के दोस्तों की
जिनके सहारे वे चलाते रहते हथौड़ा

उन्हें भूख और प्यास उतनी परेशान नहीं करती
वे भूख से नहीं डरते उतना
जितना कि शरीर में आखिरी खून के रहते बेकार हो जाने से
बेकारी में बैठे काम का इन्तजार करते
उन्हें याद आते पानी के बिना चरचरा गये खेत
कभी-कभी धू-धू कर जलते खलिहानों के बोझे
हर छोटी नींद में सरसराती हुई रेलगाड़ी की सीटी
मुजफ्फरपुर दरभंगा भोजपुर की ओर दौड़ती

वे चौंक-चौक उठते
और उनकी किंचड़ी आँखों में उस समय एक नदी उतर आती
वे कुछ देवताओं की शक्लों के आदेश पर
चलाते हथौड़े, बनती जाती बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें फैक्टरियाँ
स्कूल की इमारतें शानदार
बढ़ता देश का व्यापार
बढ़ता जाता मन्दिरों का चढ़ावा
देश हो रहा शिक्षित
लोकतन्त्र की नींव हो रही मजबूत

कविता की भाषा में कहा जाय
तो फर्क यही कि
घट रहे उनकी नींद के सीमान्त
बढ़ता जा रहा रेलगाड़ी की सीटियों का शोर
और ईश्वरीय तिलिस्मों से दूर उनकी आँखों में
शामिल हो रही एक सूखती हुई नदी की चुप्पी
बेआवाज और लगातार...