भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ के लिए / ब्रजेश कृष्ण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं लज्जित हूँ माँ कि तुम
अब मेरी कविता का विषय नहीं हो

अपने काग़ज़-पत्तर सहेजते हुए
आज अचानक मुझे मालूम हुआ है
कि पिछले वर्षों में मैं लगातार
अपने संसार की रचना में लगा रहा
जिसमें निस्संदेह तुम नहीं थीं

मेरा सारा वक़्त
अपने कामों को समेटने में बीता है
अपने होने और न होने के बीच
संघर्ष करते हुए
मैं अपनी लड़ाई
सिर्फ़ आप लड़ता रहा हूँ

नहीं,
मैं तुम्हें वह ढहता हुआ
कगार नहीं दिखाऊँगा
माँ, बस मैं लज्जित हूँ
यह बताते हुए कि इस बीच
मैंने तुम्हारे प्रति अपनी संवेदना के
सारे सूत्र खो दिये हैं
यह त्रासद नहीं है
कि नहीं है तुम्हारे खुरदरे हाथों का
वह सुखद स्पर्श मेरे साथ

मैं क्या करूँ?
अब मोतियाबिन्द के चश्मे से
झाँकती तुम्हारी आँखें
और दमाग्रस्त निरीह चेहरा
और हड्डी होती हुई तुम
मुझे उद्वेलित नहीं करतीं

माँ, यह सोचना कितना भयावह है
कि पिछले दिनों मैं तुम्हारी
मृत्यु की कामना करता रहा हूँ
तुम्हारे प्रति अपने
कर्तव्यबोध के रूप में
मेरे पास
मात्र ऐसी दुष्ट प्रार्थना!