माधव दशा सुनाऊँ कैसे / हनुमानप्रसाद पोद्दार
माधव दशा सुनाऊँ कैसे मैं उस प्रेममयीकी आज।
जुड़ा वहाँ है विषम विरहकी व्यथा-व्याधिका सभी समाज॥
रोती, करती करुणा-क्रन्दन, कर उठती वह हाहाकार।
करती अति विलाप कातर हो-’चले गये तुम प्राणाधार॥
रुग्णा मरणासन्ना आज तुहारी यह सेविका सुजान।
अभी बचाओ, परम महौषध अधरामृतका देकर दान॥
कभी देखती निर्निमेष हो, उन्माा-सी नभकी ओर।
’हा प्रियतम !’ पुकार कर उठती, ’हा ! हा ! प्यारे नन्द-किशोर !’॥
कभी बैठती ध्यान-मग्र हो, हो जाते दोनों दृग बंद।
लग जाती समाधि शुचि अनुपम, होते सभी अङङ्ग निस्पन्द॥
बनती वह वियोगिनी, योगिनि, धरकर मौन, त्याग व्यवहार।
बैठी रहती उदासीन एकान्त शून्य अविरत अविकार॥
खान-पान-तन-वसन-सभीकी स्मृतिका कर अतिशय उच्छेद।
एक अनन्य वृािमें रहती नित्य निमग्र भूल सब भेद॥
कभी दौड़ती धैर्य छोडक़र व्याकुल हो अति भुजा पसार।
आलिंगनके लिये, न पाकर रोने लगती कर चीत्कार॥
दोनों कर कपालपर रखकर विरहानलसे हो संतप्त।
बार-बार मूर्छित होती वह, चलता दीर्घ श्वास उाप्त॥
निद्रारहित बीतती रजनी, क्षीण धूसरित-धूलि सुअङङ्ग।
हृदय-दाह दारुण, अति पीडित दंशित द्वारा विषम भुजंग॥
श्वास निदाघ, नेत्र पावस ऋतु, बदन शरद, पुलगोद्गम शीत।
बुद्धि शिशिर, चन्दन-तन मधु, षड्ऋतु, राधा-तन प्रकट पुनीत॥
कोमल कमल-सेज शीतल, हो उठी तप्त राधा-तन-स्पर्श।
हरी लता जल गयी स्पर्श पा नासा-पवन-अनल दुर्धर्ष॥
इसी भाँति विरह-ज्वर पीडित, हैं ब्रजकी गोपिका तमाम।
कितने तुम निष्ठुर निर्दय हो, मिथ्या धरे मधुरतम नाम !
कर सर्वस्व समर्पण तुमको, पीड़ा-निधि-निमग्र वे आज।
व्यथित न हो उनकी पीड़ासे, भोग रहे मथुराका राज॥
जाओ शीघ्र धैर्य दो मिलकर, दो तुरंत शुचि जीवन-दान।
करो बिलब न एक पलक अब र?खो त्याग-प्रेमका मान॥
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करुण बचन सुनते ही उद्धवके हरि हुए व्यथित अति दीन।
सिहर उठा सहसा मङङ्गल-वपु, विधु-निन्दक मुख-चन्द्र मलीन॥
रुका कण्ठ, कुछ बोल न पाये, आँखें लगीं बहाने नीर।
बढ़ा विरह-दावानल दारुण, लगा दहकने दिव्य शरीर॥
बोले गद्गद गिरा धैर्य धर, दीर्घकालतक रहकर मौन।
’उद्धव ! मेरी विषम व्यथाको, है जग सुननेवाला कौन ?
बता नहीं सकता मैं, कैसा विषम हृदयमें दारुण दाह।
कैसी मर्मवेधिनी पीड़ा, कैसी प्रबल मिलनकी चाह॥
सुधा-समान सरस युचि सुन्दर स्निग्ध राधिकाके मधु बोल।
अतुलनीय अनवद्य नित्य सौन्दर्य, मधुर माधुर्य अतोल॥
सरल हृदय, सेवा, सहिष्णुता, त्याग, समर्पण, दैन्य अनूप।
भूल नहीं सकता मैं, अगणित-गुण-गण-संयुत राधा-रूप॥
मधुर मनोहर महिमामय वह रसमय शुचितम रास-विलास।
पावन विविध विनोद सुधा-रसपूर्ण मधुर मुख-पङङ्कज-हास॥
परम मधुरतम निभृत निकुजोंका वह शुचि आनन्द-विहार।
भूल नहीं सकता पल, होती मधुर-स्मृति मन बारबार॥
सर्वत्याग कर, मनमें केवल रखती मेरा सुख-अभिलाष।
इसी हेतु ये जीतीं जगमें, करतीं नित वृन्दावन-वास॥
खान-पान-परिधानाभूषण, जगके भोग-त्याग-व्यवहार।
मेरे ही सुख-हेतु एक, वे करतीं सदा सभी आचार॥
त्यागमयी गोपीजन-मण्डित उस राधाका विषम वियोग।
प्रतिपल है संतप्त कर रहा, चाह रहा मन नित संयोग॥
पर उद्धव ! यह विप्रलभ ही करता अति सुखका संचार।
मिलनानन्द-रसामृतका यह करता शुचि विचित्र विस्तार॥
प्रेम-राज्यमें विप्रलभ-सभोग उभय रस नित्य स्वतन्त्र।
विविध रूप-भावोंमें नित करते रहते संयोग विचित्र॥
किंतु साथ ही रहते हैं ये आश्रय एक दूसरेके सब काल।
अविनाभाव बने, सरसाते नव-नव रस-पीयूष रसाल॥
किंतु तवतः मेरा-उसका रहता नित्य सतत संयोग।
एक बने दो लीला करते नित्य वियोग, नित्य सभोग॥
आना-जाना कहीं कभी भी रखता नहीं तवतः अर्थ।
मिले हुए हैं सदा, सर्वथा, नित्य अभिन्न सत्य परमार्थ॥
देख कहीं पाते तुम उद्धव ! हम दोनोंका ताविक रूप।
सदा एक-तन सदा एक-मन, सदा एक-रस तव अनूप॥
मिट जाते संदेह सभी, तुम पाते भगवदीय आनन्द।
राधा-शरण-ग्रहण कर अब भी, प्राप्त करो इसको स्वच्छन्द॥